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यथार्थ

soch
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पलते थे आखों में सपने, अब सूनी रहती है
पल पल इधर उधर बस कुछ ढूंढा करती है
न सपनों के बाग़ यहाँ है न कोई हरियाली है
अब जीती है बस यथार्थ में जहाँ न कोई रस है
सच की राहों पर चल कर ही ये हमने जाना है
यहाँ न कोई अपना है न कोई बेगाना है
इस यथार्थ की पगडण्डी में पथरीली रहें है
इन पर चलकर पल पल बस ठोकर लगती है
सुख दुःख का हर बोझ हमें ढोना पड़ता है
अपने अपने हिस्से का जो आसमान है
हर किसी को स्वयं ढूढ़ना पड़ता है .

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